शनिवार, 28 जून 2014

कभी-कभी जब मैं सामाजिक विकृति और विसंगतियों को देखता हूँ तो तो संसार से मेरा जी भर जाता है।

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आज हमारे संतों महात्माओं अथवा धर्म एवं संस्कार के रक्षक प्रधानों को, केवल बीती हुई कहानियाँ ही नहीं अपितु भविष्य की भी कुछ कहानियों को बताना चाहिए।
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कोई कोई बताते भी होंगे ! पर हमने कभी सुना नहीं।
तो हमने सोचा इस विषय पर क्यों न पहले हमलोग ही चिंतन मंथन करें /-
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सीधी सी बात है ।
कल तक पुरुष कम कपड़े पहनते थे, लेकिन आज का दौर देखा जाय तो पुरुष पूरे कपड़े पहनते हैं।

इसमें एक कारण भी है:-  :-D ।
पहले केवल पुरुष ही कमाते थे, तो महिलाओं के कपड़े और श्रृंगार के बाद जो बचते थे उसी में वे अपने वस्त्रों की आपूर्ति करते थे। चूँकि आभूषण बहुत महंगे हैं इसीलिए बचे हुए पैसे पुरुषों के पूरे कपड़े जितना नहीं हो पाते थे और  सदा से ही नारियों का सम्मान और स्थान पुरुषों के लिए सर्वोपरी भी रहा है। शायद इसीलिए ही आज ये लेख हम लिख भी रहे हैं

अब, यह सब जानते हैं की समय सदैव सामान नहीं होता और संसार की प्रत्येक वस्तु भी परिवर्तनशील भी है।

समय बीतते गया,
बीतते गया !
इतने में आज का आधुनिक युग आ गया और निःसंदेह परिवर्तन बहुत कुछ देखने को मिलता है।

हम आपको बताते हैं कि कैसे कितना और क्यों परिवर्तन हुआ ।  :P

आज के दौर में अब महिलाएँ भी कमाने लगी हैं। फिर भी ज्यादा कुछ नहीं बदला, तब भी वही सिक्का था किन्तु तब अशोक स्तम्भ ऊपर था और आज एक रूपया और गेहूँ की बाल ऊपर है।

आइए और भी विस्तार से इस रहस्य को जानने की कोशिस करते हैं :-

अब हुआ यूँ कि जब महिलाएँ भी कमाने लग गयी हैं तो सदा से ही उनके लिए भी पुरुषों का स्थान और सम्मान सर्वोपरी रहा है।

स्थिति कुछ ऐसी आ गयी कि पुरषों के भोजनापूर्ति एवं उनके अधूरे कपड़े को पूरा करने में अब महिलाओं के पास ही पैसा कम बच रहा है। चूँकि महंगाई भी बहुत बढ़ गई और पहले की अपेक्षा पुरुषों का खुराक भी बढ़ गया।
और महिलाएँ भी पुरुषों से कम कहाँ !!! अब बचे हुए पैसे कम होते हैं इसलिए महिलाओं ने भी अपना कपड़ा छोटा कर लिया।
आज वे कमा सकती हैं और किसी भी मायने में वे पुरुषों से कम नहीं, इसका सीधा-साधा और जीता-जगता प्रमाण उनका अधूरा कपड़ा ही है।
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आइए अब यह जानने की कोशिस करते हैं कि यह घटना कब कैसे और सर्वप्रथम कहाँ घटित हुई:-

यह बात उन दिनों की है जब अंग्रेजों का अपना इतिहास खो गया था। सब अपने-अपने में व्यस्त रहे मस्त रहे, किसी ने भी आने वाले भविष्य के बारे में विचार नहीं किया और इसीलिए उनका इतिहास खो गया। कुछ समय और बीता। इतिहास ग्रन्थ आदि लुप्त भी हो चले थे, परिणाम स्वरूप उन्हें कोई भी नियम अथवा सिद्धांत ज्ञात भी नहीं रहा ।  अब जब मानव जीवन को सँभालने वाली कोई डोर ही न बची तो उन्हें यह भी विस्मृत हो चुका था की शर्म/लज्जा एवं सम्मान/इज्जत नाम की भी कोई वस्तु होती है।

अब चूँकि भोजन, निद्रा एवं मैथुन जानवरों की ही नहीं समस्त प्राणियों की जरूरत है। अतः वे भी प्राणी ही थे और इसीलिए उन्हें भी यही ज्ञात रहा। जहाँ तक कपड़ो की बात है तो उनसे पहले जो लोग दुनियाँ से जा चुके थे वे भी कपड़े पहना करते थे । अतः आज भी यह दैनिक कार्य की भाँति बना हुआ है।

बदलाव कैसे हुआ ?

जिसे किसी भी नियमों और सिद्धान्तों का ज्ञान न हो लगभग वह पशु-तुल्य ही होता है। पशु नंगे ही रहते हैं इसलिए कुछ समय पश्चात कुछ लोग नंगे ही रहने लगे। और कुछ लोगों ने अपनी प्रखर बुद्धि क्षमता के कारण दो पैरी होने की पहचान करते हुए अपने को चार, आठ तथा दस पैरियों से अलग करते हुए कपड़े पहनना स्वीकार किया। कुछ समय बीता ! तद्पश्चात दोनों झुंड आपस में मिल गई और कपड़े आपस में बाँट लिए। परिणाम स्वरूप कपड़े अधूरे और छोटे हो गए।  इसे प्रकार की गरीबी भी कहा जा सकता है। इसी प्रकार विदेशों में छोटे कपड़ों का प्रचलन हो चला।

बहुत समय बीता और भारत वाले भी उनके प्रचलन से परिचित हुए। धीरे-धीरे भारतवासी उस प्रचलन को नया चलन(फैसन) समझ बैठे। और उन्हीं ग़रीबों के साथ भारत भी गरीबी में तब्दील हो गया।
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अब जिसे यह लगता है कि हम गरीब नहीं हुए उनके लिए कुछ भविष्य की कहानियाँ अथवा घोषणा :-

कुछ समय पहले महिलाएँ पूर्ण वस्त्र में रहा करती थीं। और अब अर्ध वस्त्र में होती हैं। ऐसे में यदि यह कह दिया जाय कि भविष्य में नग्न घूमेंगी तो आपके हिसाब से भी अतिशयोक्ति नहीं होगा, मेरे हिसाब से तो पहले से ही नहीं है। क्योंकि सीधी सी बात है संयम तो पुरुषों को रखनी चाहिए, इसमें महिलाओं का दोष कहाँ?

आजकल देखा जाय तो ज्यादातर जो धनी वर्ग हैं अथवा शिक्षित वर्ग होने का दावा करते हैं उनके ही घरों में ज्यादातर महिलाएँ अथवा कन्याएँ अधूरे कपड़े पहने घूमती हैं। और आजकल की माताएँ भी पता नहीं अपने बच्चियों को क्यों नहीं समझती कि यह नया चलन नहीं अपितु पहले जमाने में गरीबी का प्रतीक हुआ करता था।
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जो लड़कियां शिक्षित हैं अथवा स्वयं को शिक्षित समझती हैं। पता नहीं वे भी क्यूँ नहीं विचार कर पातीं कि आज उनकी माता पूरे वस्त्र पहने हैं और वे अधूरा पहनी हैं तो कल जब उनकी बेटी कुछ भी पहनना स्वीकार न करे तो उसमे उसका तनिक भी दोष नहीं होगा, किन्तु उसके माँ को कैसा लगेगा? आज की युवतियों को यह विचार पता नहीं क्यूँ नहीं आता।

            ~~~ अंगिरा प्रसाद मौर्या ।

!!*!! जय हिन्द !!*!! जय भारत !!*!!
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जिसे भी हमारा यह लेख आहत करता हो अथवा ठेस पहुँचाता हो हम उससे क्षमाप्रार्थी हैं। क्योंकि यह लेख हमने नकारात्मकता के लिए नहीं अपितु सामाजिक सकारात्मकता हेतु लिखा है।

!!*!! वन्दे-मातरम् !!*!!

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