गुरुवार, 19 जून 2014

भीड़ का हिस्सा ! क्या आम आदमी वास्तव में कोई परिवर्तन ला सकता है? या बस करता रहेगा आरोप प्रत्यारोप? 

-:भीड़:-

भीड़ तो कई प्रकार की होती है, कुछ जुटाई जाती हैं, कुछ बुलाई जाती हैं और कुछ खुद चल के आती हैं।

अब इनमे जो खुद चल के आती हैं उन्ही में हिस्सा(भीड़ का हिस्सा) हो सकता है। क्योंकि उसमे से प्रत्येक अपने अपने मतानुसार एकत्रित होते हैं। वे किसी एक विशेष प्रयोजन से नहीं होते।
जैसे- शादी की भीड़, सब शादी के प्रयोजन से ही होते हैं।

फिल्मों की भीड़, यहाँ सब फिल्मों के प्रयोजन से ही होते हैं।

चुनाव प्रचार हेतु अथवा सत्संग हेतु बुलायी गयी भीड़, यहाँ सब सुनने और सीखने के प्रयोजन से होते हैं।
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दुनियाँ की भीड़:-

यह एक बहुत बड़ी भीड़ है। यहाँ न तो कोई बुलाया गया है न तो कोई लाया गया है, सब के सब खुद अपनी जगह पर रहते हुए इस भीड़ का हिस्सा बने हुए हैं। इसी भीड़ में मैं भी हूँ और आप भी हैं। अर्थात प्रत्येक इस भीड़ का हिस्सा है। और सबके अपने-अपने स्थान हैं।
इसी में एक बहुत बड़ा स्थान आम आदमी का भी है।

क्या कर सकता है आम आदमी:-

हमारा मत है की आम आदमी कुछ नहीं कर सकता। वह जो कुछ भी करता है सब अपने लिए ही करता है, और अपने लिए करना कुछ न करने के बराबर है।
जैसे- एक परिवार में मुखिया को छोड़ सभी आम आदमी हैं, सब अपने लिए करते हैं किन्तु मुखिया/अभिभावक होने के नाते मुखिया सब के लिए सोचता करता है। यहाँ पर आज के समय में एक ही परिवार से कई लोग वहन/खर्च को लेकर अपनी अपनी जिम्मेदारियों पर कार्यरत हो सकते हैं, तो वे सब भी वहाँ पर आम आदमी नहीं हुए। सामूहिक मुखिया के रूप में उनका अपना-अपना स्थान होता है। बचे हुए बाकी आम आदमी।

अब बात आती है दुनियाँ के भीड़ की, देश के भीड़ की।
यहाँ पर भी जो सिर्फ अपने परिवार के लिए करता है वह भी कुछ नहीं करता है, वही है आम आदमी।
जिसे यह ज्ञात होता है कि हम केवल परिवार से नहीं अपितु समाज एवं देश से भी हैं तो वह अपने परिवार में ही देशहित हेतु प्रेरणाएँ देता है, देश पर मर-मिटने हेतु हौंसले बुलंद करता है, समाज को साफ़ सुथरा रखने हेतु कड़े कदम उठता है।  वह आम आदमी नहीं होता, वह खास आदमी होता है।

किसी घटनास्थल पर एकत्रित आम आदमी की पूरी की पूरी भीड़ भी कुछ नहीं कर सकती जब तक वहाँ कोई खास आदमी नहीं होगा ।

आम आदमी कुछ नहीं कर सकता,परन्तु आम आदमियों का समूह बहुत कुछ कर सकता है।
जरूरत है नेतृत्व की, और नेतृत्व एक खास आदमी ही कर सकता है। जरूरत है दयानंद की, जरूरत है विवेकानंद की, जरूरत सुभाष की ।

ऐसे कृत्य करने वाले नाम तो बहुत हैं, किन्तु हमने सार्थक नामों को ही दिया।

दयानंद= दया करने में ही जिन्हें आनंद मिलता हो।
विवेकानंद= विवेक ही जिनका आनंद हो, अर्थात कर्तव्य पथ से कभी न हटने वाला।
सुभाष = जिनसे सुभ की ही प्रत्येक को आशा हो।
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आरोप प्रत्यारोप :-

आम आदमी के आरोप-प्रत्यारोप से कुछ नहीं होने वाला, जब तक कि वह अपने आप को खास आदमी नहीं बना लेता, एक व्यापक समूह नहीं तैयार कर लेता। झूठी झलक में पद्स्थित इन सत्ता के अधिकारियों को, नेतृत्वहीनों को और नेत्रहीनों को जब तक सत्ताविहीन नहीं कर देता।
हमारा यह लेख यहीं पूरा हुआ।
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अब यदि कोई कहे कि मोदी जी को आम आदमी ने जिताया तो यह गलत है। मोदी जी को उनके नेतृत्व ने जिताया। मोदी जी को उनके व्यापक समूह ने जिताया। मोदी जी में बैठे सुभाष, गुजरात के विकास ने जिताया।

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