मंगलवार, 24 जून 2014

कैसा हो हमारा गुरु अथवा सदगुरु :-

गुरुर्ब्रह्मा गुरुर्विष्णु गुरुर्साक्षातमहेश्वरः ।

यह कथन बिलकुल सत्य है इसमें कोई संदेह नहीं है।
किन्तु,
समाज में जो चंद लोग यह घोषित करते हैं कि बिना गुरु ज्ञान अधूरा होता है, आजकल इसे घोषणा नहीं अपितु थोपना समझना चाहिए।
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इसका साक्षात अवलोकन आप अपने घर और समाज में स्वयं कर सकते हैं। आप पायेंगे कि जो बुजुर्ग हो चुके हैं वो दीक्षा/गुरुमंत्र की बाध्यता वस किसी न किसी को अपना सदगुरु मान चुके होंगे और उनके बताये गये नियमों, मन्त्रों तथा हरिनामों का नित्य उच्चारण करते होंगे।

यह भी है एक अंधाकानून ही है जो चंद पंडितों ने समाज पर थोप रखा है। मैं कहता हूँ जब "गुरु ही ब्रह्मा गुरु ही विष्णु गुरु ही साक्षात महेश्वरः" इस कथन को जब सभी सर्वोपरि मानते हैं तो गुरुओं को वैसा सामर्थ्यशाली होना भी चाहिए। और किसी को भी दीक्षा लेते समय इसका पूरा ध्यान रखना चाहिए और परिक्षण करके ही गुरु बनाना चाहिए।
मैं तो इस प्रणाली को पूरा का पूरा ब्राह्मणवाद मानता हूँ। और समाज को बिगाड़ने अथवा हिन्दुओं की छवि ख़राब इन्ही पाखण्डी तत्वों की वजह से ही हुई है।
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और भी विस्तार से:-

जब किसी व्यक्ति में गुरु होने के उचित कोई लक्षण न हों, ऐसा कोई सामर्थ्य अथवा तेज ना हो जो ईश्वर का साक्षात्कार करा सके, तो वह आपको आत्मसाक्षात्कार कभी नहीं करा सकता।
ऐसे लोग चंद ग्रंथो का अध्ययन किये होते हैं, परन्तु उसमे बताये गए किसी भी मन्त्र एवं मार्गों में निपुण नहीं होते । यहाँ तक कि वे उनमे बताये गए सिद्धांतों को सिद्ध कर पाने में भी सक्षम नहीं होते।
तो,
ऐसे लोगों को गुरु स्वीकार करना अंधकार को स्वीकार कर लेने के ही सामान है। सत्य को ठुकराकर झूठ की सत्ता बताने के बराबर है, धर्म की हानि कर अधर्म को बढ़ावा देने के बराबर है।
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ऐसी परिस्थिति में आप केवल नाम मात्र का ही गुरु मानते हैं, जो इसकी पुष्टि कदापि नहीं कर सकता कि आप का भविष्य क्या होगा, वह आपके भविष्य के किसी खरे संकेत को भी इंगित करने में सक्षम नहीं है तो कैसा गुरु और कैसा उसका ज्ञान ?
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अब यदि आपको इसका भय है कि बिना गुरु के आपका ज्ञान अधूरा रह जायेगा। तो आप भगवान को ही गुरु मान लो और ग्रंथों एवं शास्त्रों का अध्ययन आप भी कर लो। इस परिस्थिति में आपके पास गुरु, ज्ञान और भगवान तीनों चीजें ही साक्षात हैं।
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महाभारत में तो अर्जुन ने गुरु द्रोणाचार्य से साक्षात और प्रत्यक्ष शिक्षा प्राप्त की थी। परन्तु वहीँ पर एकलव्य ने मूर्ति बनाकर गुरु द्रोणाचार्य के प्रति आस्था और श्रद्धा भाव रखते हुए अप्रत्यक्ष रूप से शिक्षा प्राप्त की थी, जबकि एकलव्य अर्जुन से प्रत्येक विद्याओं में ज्यादा निपुण हुआ।
अर्थात आस्था और श्रद्धा के चलते हम भगवान को भी गुरु मान सकते हैं इसमें कोई संदेह नहीं। और भगवान ने अभिमन्यु को शिक्षा भी प्रदान किया था और अर्जुन को दीक्षा भी।
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सावधान !
यहाँ पर कोई ऐसा तर्क न दे बैठे कि यदि आपकी आस्था हो तो गधा भी लोमड़ी बन सकता है। :-D

नोट:- एकलव्य ने द्रोणाचार्य को गुरु माना था धृतराष्ट्र को नहीं।

आपका शुभचिन्तक- अंगिरा प्रसाद मौर्या।

!!*!! जय हिन्द !!*!! जय भारत !!*!!

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