शनिवार, 2 अगस्त 2014

बलात्कार, आखिर क्यों हो रहा है ये दुष्कर्म

-: दुष्कर्म, आखिर क्या करे नारी :-

किसी भी घिनौने अथवा शर्मशार करने वाले कर्म को दुष्कर्म कहा जाता है।

किन्तु यहाँ हम नारियों पर हो रहे बलात्कार पर बात कर रहें हैं।

सदियों से यह दुष्कर्म होते चला आ रहा है किन्तु अब यह बहुत प्रबल और विशाल रूप धारण कर चुका है। अतः अब यह केवल राजाओं अथवा धनिक लोगों के लिए ही नहीं अपितु पूरे मानवजाति के लिए एक चिंता का विषय बन चुका है कि इसका प्रतिकार कैसे किया जाय।

प्रभाव :-
यद्यपि आज के चलन और प्रचलन को देखते हुए हम यह कह सकते हैं कि इस दुष्कर्म को करने हेतु मानव जाति के दोनों ही जातियों में रंग देखने को मिल रहा है। परंतु गणनाओं और समीक्षाओं के अनुसार पुरुषों में इसका ज्यादा प्रभाव माना जाता है।

दुष्प्रभाव:-
इतने समीक्षाओं और समाचारों को ध्यान में रखते हुए नारी जाति पर इसका दुष्प्रभाव ज्यादा है ऐसा हम कह सकते हैं। क्योंकि यदि यह एक कार्य अथवा किसी प्रकार का कर्म है तो, इसके अर्ध कारक दोनों हैं। कोई भी एक मूल कारक नहीं है। फिर भी पीड़ित नारियाँ ही हैं। क्योंकि व्याभिचार(जिससे काम क्रिया की अनुमति नहीं दी जाती उससे भी सम्बन्ध बनाने की आशा करना अथवा भाव रखना/ अमर्यादित विचारों का उदय) ज्यादा प्रबल हो चुका है।

क्यों हो रहा है दुष्कर्म :-
दुष्कर्म प्रबल हुआ तो इसका तात्पर्य कदापि ना समझें कि कामदेव का श्री कृष्ण के घर में जन्म पा जाने से उनका फिर से उदय हो गया इसलिए यह दिन प्रतिदिन वृद्धि पर है। ऐसा कदापि नहीं है। शिव जी ने उनके शरीर को भष्म किया था जिसके द्वारा कामदेव साक्षात् भी उपलब्ध हो सकते थे, और किसी को कुछ विश्मृत हो जाने पर उनसे तदाकार कराया जा सकता था। वैसे यह एक काल्पनिक कहानी भी हो सकती है। फिर भी जहाँ तक काम की बात है तो यह सृष्टि का एक बहुत ही महत्वपूर्ण घटक है, जिसके समाप्त हो जाने से सृष्टि चक्र अस्त-व्यस्त हो जाएगी और कल्प का तुरंत ही समापन भी । अतः इस घटक को कभी समाप्त नहीं किया जा सकता। जैसे कंप्यूटर में कोई महत्वपूर्ण घटक स्थगित हो जाता है तो कंप्यूटर बंद हो जाता है, जबकि स्पीकर अथवा कैमरा काम करना बंद कर दे तो कंप्यूटर नहीं बंद होता।
अरे कहाँ पहुँच गए ! यह तो विषय ही नहीं था।

आइये फिर से जाने कि क्यों हो रहा है दुष्कर्म :-
जब ऋण आवेशित और धन आवेशित विद्युत के दो नग्न तार एक ही खम्भे पर बाँधे जाते हैं तो उनकी दूरी इतनी होती है कि बहुत तेज हवे में भी दोनों में इतनी नजदीकियाँ ना आ जायँ कि काम की हवा उन पर प्रबल हो जाय और बिना कारण दोनों काम कर बैठें। इसी प्रकार नारी और पुरुष भी परस्पर भिन्न आवेशों वाले माध्यम हैं और इनमे ईश्वरीय विद्युत विद्यमान है। जब यह नग्न अवस्था में चलते हैं तो काम की हवा इन पर प्रबल हो जाती है। और यह हवा जब एक बार छू के जाती है तो इसका प्रभाव बहुत समय तक रहता है, यदि काम की तुरत पुष्टि अथवा तुष्टि नहीं होती ।
अब इस भाव अथवा काम को जगाने का कारक कौन था और इसका शिकार कौन होगा यह कौन जान सकता है। जब गेहूँ के साथ घुन पिस जाता है तब इसी क्रिया, दुशसाहस अथवा अपकृत्य को दुष्कर्म कह दिया जाता है।

सभी यही चिल्लाते हैं कि दुष्कर्म हो रहा है अनाचार हो रहा है लेकिन फिल्मों का प्रचार करना कोई बंद नहीं करता, जी हाँ अश्लील फ़िल्में। चाहे वह नारी हो अथवा पुरुष उसके अन्दर यह भाव बातों और चित्रों से भी उदित हो जाता है, और फिर यह कब शांत होगा कैसे शांत होगा इसे कौन बता सकता है। हम मुंबई में रहते हैं, कदाचित हमारे अन्दर भी ऐसी भावनाएँ जागृत हो जाती हैं, लेकिन हम अपने मान-सम्मान के बहुत धनी व्यक्ति हैं हमें संयम रखने पर विवश होना पड़ता है।

"माना कि मैं किसी के लिए निर्धन हूँ लेकिन हमारा अपना सम्मान और आत्माभिमान भी कुछ होता है",। बस यही भावना यदि सभी पुरुषों के अन्दर जागृत हो जाती तो आज केवल पुरुष ही दुष्कर्मी नहीं कहे जाते। इसमें नारियों का भी योगदान है इसे कोई भी मानने को तैयार हो जाता। एक नारी कहती है दुष्कर्म हो रहा है और वहीँ पर दूसरी अपने धन के नशे में सार्वजनिक स्तर पर रोमांस(आलिंगन को भाव परिवर्तित करना) दिखा रही है, वो भी वस्त्र ऐसे पहनी होती हैं जिसे नग्न कहने में कोई अतिश्योक्ति नहीं है। कितना संयम रख पायेगा पुरुष, उसकी भी तो कोई क्षमता होगी ! एक तरफ काम प्रबल है नहीं तो सृष्टि चक्र रुक जायेगा और दूसरी तरफ रोमांस प्रबल है नहीं तो देह-व्यापार अथवा वेश्यावृत्ति रुक जाएगी। ऐसे में सामान्य पुरुषों का निर्बल अथवा अबल हो जाना स्वभाविक है।
दुष्कर्मम इति ।

यदि कुछ नारी नहीं पूरी नारी जाति ही इस दुष्कर्म से बचना अथवा निजात पाना चाहती हैं तो क्या करें :-

" ईश्वर के पश्चात् हम सर्वाधिक ऋणी नारी के हैं, प्रथम जीवन के लिए पुनश्च इसे जीने योग्य बनाने के लिए"।

इसका तात्पर्य यह नहीं कि नारियाँ सिर्फ दो ही कार्यों हेतु बनी हैं। एक सम्बन्ध और दूसरे परुषों की सेवा।
यह गलत धारणाएं हैं और यह आचार नहीं दुष्प्रचार है कि पति ही परमेश्वर है। इसी कारण नारियाँ नग्न होकर अपनी प्राथमिकता हेतु आगे आ रही हैं, नहीं तो चालाक पुरुषों ने उन्हें चरण पादुका बना रखा था। वह बहुत ही डरी हुई थीं। जबतक पति परमेश्वर रहा तबतक उन्हें बहुत प्रताड़ित किया गया। एक पति परमेश्वर है तो सभी पति परमेश्वर थे, ससुर भी हर मोड़ पर बहु की ही गलती देता था और सासु ! उनको तो हर काम से छुटकारा पाना था वो क्यूँ नारी का सम्मान करेंगी ? हमारी भारतीय नारियाँ यूँ ही नग्न होने पर विवश नहीं हुई हैं उन्हें बहुत सताया गया अंधविश्वासों के चलते और उनको शिक्षा भी उपलब्ध नहीं कराया जाता था कि वो भी कुछ निति नियम जानें। तब जाकर आज नारी नग्न हुई है ! अपनी मर्यादा भूली है जो कि मन गढ़ंत था। किन्तु आज बहुत संघर्ष करते हुए नारी जाति शिक्षा स्तर पर पहुँच चुकी है। ऐसे में यदि कुछ बुद्धि प्रवीण नारियाँ चिंतन करें तो उन्हें ज्ञात होगा कि उनका नग्न होना अनुचित है, उनके लिए ही नहीं पूरी सृष्टि के भी। नारी भारी तो है किन्तु इस अवस्था में वह स्वयं पर ही भारी पड़ रही है, स्वयं पर ही संयम नहीं रख पा रही है।

आइये इसी बहाने सुनते हैं एक कथा पुरातन की :-
हमे मुनि जी का नाम स्मरण नहीं हो पा रहा है अतः उन्हें हम मुनि जी ही कह कर संबोधित करते हैं।
एक समय की बात है जब देवासुर संग्राम चल रहा था। उस समय एक बहुत ही तेजस्वी मुनि अपनी पत्नी को आश्रम पर छोड़ तप को निकल चले। क्यों चले वह अपने आश्रम पर भी तो तपस्या कर सकते थे ? बहुत ही विचारणीय है!
क्योंकि पति और पत्नी दोनों ही ज्ञानी और तपस्वी थे ऐसे में यदि एक साथ रहकर तपश्या करते हैं तो विश्राम काल में काम उनपर अवश्य प्रबल हो जाता और कुछ एकत्रित तत्व विनष्ट हो जाते जिसपर वे कार्यरत थे। क्योंकि सिद्धियाँ अथवा दिव्य शक्तियाँ भोग-विलास से क्षीण होती हैं चाहे वह आत्मबल हो या बाहुबल।
अब,
मुनि जी बहुत ही दूर जाकर तपस्यारत हो गये जहाँ से एक ही दिन में आश्रम पहुँचना सम्भव नहीं था। इधर उनकी पत्नी भी तपस्यारत हो गईं। वहाँ संग्राम में असुर हारने की परिस्थिति में पहुँच गए। उनलोगों ने निर्णय किया कि कुछ लोग भाग जायँ और कुछ लोग डटे रहें नहीं तो असुरों का अस्तित्व ही समाप्त हो जायेगा।

असुर भागते भागते मुनि जी के आश्रम पर पहुँच गए। देवताओं को संख्या का ज्ञान हुआ तो वे भी खोजने निकल गये। असुरों ने माता जी से बड़े विनम्र भाव से शरण माँगा और माता जी ने वात्सल्यता वस उन्हें छुपा दिया।

देव भी वहाँ पहुँचे और माता जी से पूँछे कि वे असुर लोग इसी ओर आये और पता नहीं कहाँ चले गए कृपया मार्गदर्शन करें ! माताजी पहले ही कुछ पुत्रों द्वारा वचनबद्ध थीं अतः उन्होंने दूसरे पुत्रों से कह दिया हमे ज्ञात नहीं है। और माताजी में तप की इतनी शक्ति थी कि वे देवता उनका सामना नहीं कर सकते थे। अतः वे बिना दुशसाहस लौट गए, इतने में ही कार्णार्णव के श्री विष्णु जी को यह ज्ञात हुआ कि तपस्विनी ने असुरों का पक्ष लेते हुए झूठ बोला है, तो सुदर्शन छोड़ उनका गला काट दिए। अब जिस प्रकार सच्चिदानंद श्री विष्णु जी को ज्ञात हुआ था उसी प्रकार तुरत मुनि जी को भी यह ज्ञात हो गया की भगवान ने उनसे पत्नी छीन ली तो, वह भी उसी क्रोध के वस भगवान को श्राप दे दिए और रामावतार में उन्हें आजीवन पत्नीसुख प्राप्त नहीं हुआ।
पूर्वकालम इति ।

यह कथा हमने केवल प्रेरणा हेतु ही कही अन्यथा विषय पर इसका औचित्य नहीं था।

आशय है कि पति ही परमेश्वर नहीं है, नारी का भी ईश्वर है और वह बहरा नहीं वह भी सुनता है जैसे कि पुरुषों का ईश्वर। नारियों को पहले भी ज्ञान दिया जाता था नहीं तो छोटी सी कुटिया में उन असुरों को वे कैसे छुपा पातीं ? वो भी दिव्य दृष्टि वाले देवों से ! अतः सभी मानवों को ज्ञान का अधिकार है। यह केवल पुरुष मात्र नहीं है।

नारी का भी अपना अस्तित्व है। लेकिन नीतिपरक है। पहले नारियाँ किसी पर-पुरुष अर्थात जो आयु में बराबर अथवा बड़ा हो, के साथ कोई मंत्रणा अथवा स्पर्धा या सार्वजनिक स्तर पर बात नहीं करती थी केवल नारियों अथवा बच्चों के साथ ही ऐसा करती थीं। क्योंकि बच्चे उनके अपने होते थे और नारियाँ ! सामान आवेस आपस में टकराने पर केवल क्रिया करते हैं प्रतिक्रिया नहीं। वे नारियाँ भी अपने कार्य में व्यस्त होती थीं लेकिन उनका क्षेत्र अलग था । वह केवल जीवन के लिए और जीने योग्य बनाने के लिए ही पुरुष मिलती थीं और वो भी केवल अपने पति अथवा बच्चों से या परिवार कह लीजिये। दोनों का अपना अस्तित्व था। कोई पुरुष नारी परस्थ नहीं था और कोई भी स्त्री केवल पुरुष परस्थ भी नहीं थी। सभी ईश्वर परस्थ थे। लेकिन आज के युग में आप किसी भी कार्यालय में चले जाइये, एक पुरुष तो दूसरी नारी सट सट के बैठे रहते हैं। विद्यालयों के दुआरे अथवा उद्यान में देखिये ! जिसमें केवल विद्यार्थी ही होते हैं! यहाँ पाएंगे कि एक लड़की और एक लड़का अथवा एक लड़की दो या तीन लड़के इसी तरह अपनी मंडली बनाकर दूर दूर बैठे मिलेंगे। उनको कोई नहीं पूछेगा कि क्या कर रहे हो। और यदि कोई पूछा भी, तो उत्तर में मिलेगा कि वे प्यार करते हैं अर्थात वे अभी रास कर रहे हैं। उनके ऊपर प्रतिबन्ध नहीं है। क्यों रहेगा ? यह कार्य तो स्वयं भगवान श्री कृष्ण ने भी किया था।
ऐसी स्थिति प्रतिक्रिया नहीं होगी तो क्या क्रिया होगी ?
कोई क्रिया नहीं होगी और जो प्रतिक्रिया हो रही है वह दुष्क्रिया बन चुकी है।

ध्यान रहे !,
रानी लक्ष्मीबाई ने शत्रुओं से लड़ाई की थी झूठे आरोप लगाकर पुरुषों से नहीं। कोई भी नारी इस दुष्कर्म के मामले में किसी पुरुष को ही दोषी मान सकती है, पुरुष की जाति को नहीं।
हमने तो कई बार ऊँचे स्तर के व्यक्तियों यथा एक पुरुष और स्त्री को हाथ मिलाते देखा है, यह भी प्रतिक्रिया का एक कारक ही है। नारी पुरुषों से हाथ ही नहीं अपितु गले भी मिल सकती है किन्तु नीतिपरक! एक माता अपने पुत्रों से, एक पत्नी अपने पति से और एक बहन अपने भाइयों से इत्यादि।
आखिर क्या आवश्यकता है हाथ मिलाने की दूर से भी तो अभिवादन कह सकते हैं, ।
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कुल मिलाकर यदि नारियाँ इस दुष्कर्म से बचना चाहती हैं तो राष्ट्रीय स्तर पर उन्हें पुरुषों से अलग क्षेत्र चुनना पड़ेगा । चाहे वह बेटी हो,बहन हो, माँ हो या फिर वह दादी माँ हो उसे आज ही अपना अलग क्षेत्र चुनना पड़ेगा तभी इस कलह का निवारण हो सकता है। अर्थात हर क्षेत्र में बँटवारा करना पड़ेगा।
  ।।एक एव उपचारम इति।।
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एक बात और है! जबसे भारतीय स्त्रियाँ निर्धन हुई हैं तबसे यह पता भी नहीं चलता कि कौन माँ है और कौन बेटी ! एक बार एक व्यक्ति विवाह हेतु लड़की देखने गया तो वह लड़की के माँ को पसंद कर आया। घटना कुछ इस प्रकार है !"
लड़की की माँ स्कर्ट पहनी हुई थीं और लड़की जींस पहने हुई थी। लड़के को जो ज्यादा जवान दिखी उसी को पसंद कर आया…………… 
हँसना मना है ……………………… !

आपका शुभ चिन्तक- अंगिरा प्रसाद मौर्या।

!!*!! जय हिन्द !!*!! जय भारत !!*!!

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