मंगलवार, 11 अगस्त 2015

धर्म में अपवाद तथा मान्यताओं का दुरूपयोग

इस विषय पर हमारे मन में बहुत सारे प्रश्न उठते हैं और मैं इन प्रश्नों पर निरंतर चिंतनरत रहता हूँ।
आपके समक्ष उन्हीं प्रश्नों सहित उसका खंडन कर रहा हूँ! क्योंकि हो सकता है आपको भी ऐसे प्रश्न कभी कभी विचलित करते हों !
जय श्री कृष्ण !

प्रश्न 1 : क्या आज की जागरूक पीढ़ी अथवा साक्षरता के इस युग में धर्मसंगत अथवा धार्मिकता हेतु दिशा-निर्देशों की आवश्यकता है ?

खण्डन : हाँ दिशा-निर्देशों की आवश्यकता आज भी है और भविष्य में भी रहेगी !
किन्तु, इसके विभिन्न खण्डों को मान्यता देना अपवाद है। यह एक विसंगति पूर्ण अथवा त्रुटिपूर्ण प्रक्रिया सिद्ध होगी यदि धर्म अथवा धार्मिकता विभिन्न खण्डों में विभक्त हो जायेगी ।

प्रश्न 2 : साक्षरता के इस युग में क्या धर्म के ठेकेदार आवश्यक हैं ?

खण्डन : बिलकुल नहीं ! साक्षरता के इस युग में पत्रकारिता एवं शिक्षापद्यति के माध्यम से हमारे देश के न्यायालयों अथवा प्रशासन को यह निर्णय लेना चाहिए कि धर्म क्या है और अधर्म क्या है। इसके लिए ठेकेदारों की नहीं समझदारों की आवश्यकता है।
समझदार अर्थात् घर परिवार के बुजुर्गों/श्रेष्ठों का यह कर्तव्य है कि अपने परिजनों को धर्म अधर्म की जानकारी दें एवं शान्ति सौहार्द हेतु प्रेरित करें ।

प्रश्न 3 : यदि धर्म के ठेकेदार यथा शंकराचार्य, महामण्डलेश्वर आदि को जनता मान्यता देती है एवं दान करती है। तो क्या दरिद्रता से पीड़ित करोड़ों की जनसँख्या वाले देश में इन महाशयों को सोने चाँदी के मुकुट अथवा रथ बनवाना शोभा देता है ?

खण्डन : कदापि शोभायमान कृति नहीं हैं ये सब । संत महात्माओं ने सूखी रोटी खाकर सदा ही अपने जीवन को जनमानस के उद्धार में लगाया है। सनातन धर्म का इतिहास इसका प्रमाण है।
कंश में समय में मथुरा के कुलगुरु मुनि गर्ग थे। उन्होंने राजमहल में कभी भी अनावश्यक समय नहीं बिताया। वे अपनी कुटिया में सूखी रूखी खाकर आपदाओं एवं विपदाओं का सामना करने हेतु सदैव तपस्यारत रहते थे । वे चाहते तो कंस को सिंहासन से उतारकर स्वयं भी बैठ सकते थे किन्तु यह उनके धर्म के विपरीत था क्योंकि वो संत थे। इसी प्रकार से ही सभी मुनियों की जीवनी है धर्मग्रन्थ जिसके प्रमाण हैं।

प्रश्न 4 : धर्म के तथाकथित ठेकेदार जनता के धन से अनेकों सुविधाएं लेते हैं। क्या इन्होंने आजतक कोई अविष्कार किया ?
अथवा किसी भी पुराने मन्त्र को सिद्ध कर पाये ?

खण्डन : आज जो भी ठेकेदार हैं यथा संकराचार्य अथवा महामंडलेश्वर आदि ये लोग योगी नहीं अपितु भोगी हैं इन्हें मानना अथवा इनके दिशा-निर्देशों पर चलना मूर्खतापूर्ण हैं। इतना ही नहीं! इन तथाकथित ठेकेदारों का समाज में उच्चस्तर पर बने रहना भी एक छल है जो कि चन्द लोगों का चक्रव्यूह है। और सामान्य जनमानस भोलेपन के कारण इसमें फँस जाता है।

आप विचार कीजिए !
कोई भी संस्था अथवा प्रशासन यदि किसी वैज्ञानिक को पैसा देता है तो वो नए नए अविष्कार करता है।
किन्तु,
ये तथाकथित ठेकेदार वो रूढ़िवादी परम्पराएँ ढो रहे हैं जो कि हमारे सम्मानित मुनियों एवं महर्षियों को सम्मान दिया जाता था।
ये तथाकथित लोग ये चाहते हैं कि जनता वही करे जो ये कहें !
किन्तु ऐसा तो तभी संभव हो सकता है जब ये लोग भी सिद्धपुरुष हों ! इनमे भी योग्यता हो !
इतना ही नहीं हमारे वेद-ग्रन्थों में अनेकों मन्त्र हैं उनमे एक भी मन्त्र की सिद्धि किसी के पास नहीं है।

इस प्रकार के ठेकेदारों को कुछ भी दान नहीं करना चाहिए । यदि आपको किसी मन्दिर में जाने की बाध्यता है तो आप अपने घर पर भी ईश्वर की पूजा उपासना कर सकते हैं। आपको दान ही देना हो तो अपने परिवार को दीजिए अपने आसपास उपस्थित किसी असहाय को सहायता कीजिये। यही पूण्य कार्य है।

और अब अन्त में,
प्रश्न 5 : सही अर्थों में धर्म क्या होता है ?

खण्डन : भगवत् गीता में भगवान ने कहा है कि धर्म व्यक्तिगत होता है।
किन्तु,
आज के अल्पबुद्धि वाले इस युग में मैं कहता हूँ कि "धर्म पहले नीतिगत होता है पुनः व्यक्तिगत होता है।
अर्थात् पहले व्यक्ति धर्म की नीतियों को जाने तद्पश्चात वह अपनी व्यक्तिगत परिस्थिति में धर्म अधर्म में अंतर स्वयं कर लेगा।

हमने यह चिंतन हिन्दू,मुस्लिम,सिक्ख,ईसाई आदि में से किसी एक के लिए नहीं अपितु समस्त मानवजाति के लिए किया है।

आपका शुभचिन्तक : अंगिरा प्रसाद मौर्य ।
जय श्री कृष्ण !

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